Summary

आधुनिक युग में भौतिक सुखों में जकड़ा हुआ मानव अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए अन्यों का अहित और तिरस्कार करने से भी नहीं चूकता। स्वार्थपरक और दूसरों को हीन समझने वाले मनुष्य की सबसे श्रेष्ठ शिक्षिका प्रकृति ही है। समाज के उत्थान, विकास और सुरक्षा के हेतु हमें अपना स्वार्थ छोड़ना ही होगा।
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प्रस्तुत पाठ में इसी मानवीय भावना को पशु-पक्षियों के माध्यम से दर्शाया गया है कि परस्पर विवाद नहीं करते हुए आपसी सहयोग से कल्याणपथ पर चलना चाहिए। नदी किनारे आराम करते सिंह को बन्दर अनेक प्रकार से तंग करते हैं तो क्रोधित सिंह उनसे तंग करने का कारण पूछता है। बन्दर सिंह को वनराज पद के अयोग्य घोषित करते है कि वह भक्षक है रक्षक नहीं। और अपनी ही रक्षा करने में असमर्थ है तो अन्यजीवों की रक्षा किस प्रकार करेगा?
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इनका विवाद सुनकर कौआ, कोयल, हाथी, बगुला, मोर, व्याघ्र और चीता भी आते हैं और वनराज पद के लिए अपने गुणों का बखान कर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने का प्रयास करते हैं और सभी पक्षी अपने पक्षी समुदाय के उल्लू को ही वनराज पद के योग्य कहते हैं। परन्तु कौआ अप्रियवादी, क्रूर रौद्र उल्लू के पक्ष में ना जाकर कहता है मोर, हंस, कोयल, चक्रवाक, तोता और सारस आदि पक्षिप्रधानों के होते हुए, दिन के अंधे और विकराल रूप वाला उल्लू क्या हित करेगा?
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विवाद सुनकर प्रकृतिमाता प्रवेश कर सबसे कहती है कि तुम सब ही मेरी सन्तान हो। परस्पर कलह मत करो मिलकर खुशी से जीवन को रसमय बनाओ। परस्पर विवाद से प्राणियों की हानि होती है और प्रेम व सहयोग से सब प्राणियों का उत्थान व विकास होता है।


Translation

(वन का दृश्य। पास में ही एक नदी बह रही है।)
एक शेर सुख से विश्राम कर रहा है तभी एक बन्दर आकर उसकी पूँछ को पकड़कर घुमा देता है। क्रोधित शेर उस पर प्रहार करना चाहता है, परन्तु बन्दर कूदकर पेड़ पर चढ़ जाता है। तभी दूसरे पेड़ पर से दूसरा बन्दर शेर के कान को खींचकर फिर पेड़ पर चढ़ जाता है; ऐसे बन्दर बार-बार शेर को तंग करते हैं। क्रोधित सिंह इधर-उधर दौड़ता है, गरजता है, परन्तु कुछ भी करने में असमर्थ (लाचार) ही रहता है। बन्दर हँसते हैं और वृक्ष के ऊपर अनेक प्रकार के पक्षी भी शेर की ऐसी दशा देखकर खुशी से मिलीजुली चहचहाहट करते हैं।
नींद के टूट जाने के दुःख से जंगल का राजा होते हुए भी छोटे जीवों से अपनी ऐसी दशा से थका (शेर) सब जीवों को देखकर पूछता है-

सिंह – (क्रोध से गरजता हुआ) अरे! मैं जंगल का राजा किसी से डरता नहीं। क्यों सभी मिलकर मुझे तंग करते हैं?
एक बन्दर – क्योंकि तुम जंगल के राजा होने के लिए पूरी तरह से अयोग्य हो। राजा तो रक्षक होता है, परन्तु आप तो भक्षक हैं और आप अपनी भी रक्षा करने में भी समर्थ नहीं हैं तो कैसे हमारी रक्षा करोगे?
अन्य (दूसरा) बन्दर – क्या तुमने पञ्चतन्त्र की यह उक्ति (कथन) नहीं सुनी?
जो राजा के रूप में (राजा होते हुए) विशेष रूप से डरे हुओं को तथा दूसरों के द्वारा पीड़ित जन्तुओं की रक्षा नहीं करता है। वह साक्षात् यमराज होता है यहाँ कोई सन्देह नहीं।

कौआ – हाँ, तुमने सच कहा वास्तव में वनराज (जंगल का राजा) होने के लिए तो मैं ही योग्य हूँ।
कोयल – (उपहास/मजाक करती हुई) कैसे तुम जंगल के राजा (वनराज) हो सकने के योग्य हो, जहाँ-तहाँ काँव-काँव की कठोर आवाज़ से वातावरण को व्याकुल करते हो। (तुम्हारे पास) न सुन्दरता है और ना ही सुन्दर आवाज़ है। काले रंग वाले, खाने योग्य और न खाने योग्य वस्तुओं को खाने वाले तुमको हम कैसे वनराज मानें?
कौआ – अरे! अरे! क्या बड़बड़ाती हो? यदि मैं काले रंग वाला हूँ तो तुम क्या गोरे रंग की हो? और भूल भी जाती हो कि मेरी सत्यप्रियता (सत्य के प्रति प्रेम) तो लोगों के लिए उदाहरण के रूप में –’यदि झूठ बोलोगे तो कौआ काटेगा’-इस प्रकरण में है। हमारा परिश्रम और एकता तो संसार में फैली भी है और कौए की चेष्टा वाला छात्र ही आदर्श छात्र माना जाता है।
कोयल – अधिक आत्मप्रशंसा करने (डींगें मारने) से बस करो। क्या भूल जाते हो कि-
कौआ काला है, कोयल काली है। कौआ और कोयल में क्या भेद है। वसन्त समय आने पर कौआ-कौआ होता है और कोयल-कोयल होती है।

कौआ – अरे दसरों पर पलने वाली। यदि मैं तेरी सन्तान को नहीं पालूँ तो कहाँ कोयल हो? इसलिए मैं ही दयालु पक्षियों का राजा कौआ हूँ।
हाथी – पास से ही आते हुए अरे! अरे! सारी बात को सुनता हुआ ही मैं यहाँ आया हूँ। मैं बहुत बड़े शरीर वाला, बलवान और वीर हूँ। शेर हो अथवा दूसरा कोई भी। वन के पशुओं को तंग (परेशान) करते हुए जीव को मैं अपनी सूंड से पटक-पटककर मार डालूँगा। क्या कोई दूसरा ऐसा वीर है। इसलिए मैं ही वनराज (जंगल के
राजा) के पद के लिए योग्य हूँ।
बन्दर – अरे! अरे! अथवा ऐसे (जल्दी से ही हाथी के भी पूँछ को मरोड़कर पेड़ के ऊपर चढ़ जाता है।)

(हाथी उस पेड़ को ही अपनी सूंड से हिलाना चाहता है परन्तु बन्दर कूदकर दूसरे वृक्ष पर चढ़ जाता है। इस प्रकार हाथी को एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष की ओर दौड़ते हुए देखकर शेर भी हँसता है और कहता है।)
सिंह – हे हाथी! मुझको भी इन बन्दरों ने ऐसे ही तंग किया था।
बन्दर – इसीलिए तो कहता हूँ कि मैं ही वनराज (जंगल के राजा) के पद हेतु योग्य हूँ, जिससे हमारी जाति बड़े शरीर वाले, वीर और भयानक शेर अथवा हाथी को भी पराजित (हराने) करने में समर्थ है। अत: जंगल के जीवों की रक्षा के लिए हम ही योग्य (समर्थ) हैं।
(यह सब सुनकर नदी के बीच से बगुला)
बगुला – अरे! अरे! मुझको छोड़कर कैसे दूसरा कोई भी राजा हो सकता है। मैं तो ठंडे जल में बहुत समय तक स्थिर, ध्यान में मग्न योगी की तरह ठहरकर (स्थिति होकर) सबकी रक्षा के उपायों को सोचूँगा और योजना बनाकर अपनी सभा में अनेक पदों को सुशोभित करने वाले जीवों से मिलकर रक्षा के उपायों को कार्यान्वित (साकार रूप में) कराऊँगा। इसलिए मैं ही जंगल के राजा के पद की प्राप्ति के लिए योग्य हूँ।
मोर – (वृक्ष के ऊपर से-अट्टहासपूर्वक) अपनी प्रशंसा करने से रुको रुको; नहीं जानते हो कि-
जो नेता अच्छा राजा नहीं होवे तो उससे (उसकी) प्रजा कान तक के जल वाले समुद्र में डूबने वाली नौका की तरह इस संसार में डूब जाती है।

मोर – तुम्हारी ध्यान की अवस्था (स्थिति) वो कौन नहीं जानता है। योगी के बहाने से बेचारी मछलियों को छलपूर्वक पकड़कर निर्दयता से खा जाते हो। तुम्हें धिक्कार है। तुम्हारे कारण से तो सारा पक्षिकुल (पक्षियों का संसार) ही अपमानित हो गया है।
बन्दर – (गर्व के साथ) इसलिए कहता हूँ कि मैं ही वनराज (वन के राजा के) पद के लिए योग्य हूँ। सभी वन के जीव शीघ्र ही मेरे राज्याभिषेक के लिए तैयार हों। मोर – अरे बन्दर! चुप हो जा। तू जंगल के राजा के पद के लिए कैसे योग्य है? देखो-देखो मेरे सिर पर राजमुकुट की तरह चोटी को स्थापित करने वाले परमात्मा ने ही मुझे पक्षीराज बनाया है इसलिए वन में निवास करने वाले (निवास करते हुए) मुझको जंगल के राजा के रूप में भी देखने के लिए (आप सब) तैयार हों। इस समय क्योंकि कैसे कोई भी दूसरा परमात्मा की व्यवस्था (निर्णय) को व्यर्थ करने में समर्थ है।
कौआ – (व्यंग्य के साथ) अरे साँप खाने वाले! नाचने के अलावा तुम्हारी क्या विशेषता है कि तुमको वनराज के पद के लिए हम योग्य मान लें।
मोर – क्योंकि मेरा नृत्य (नाच) तो प्रकृति की पूजा है। देखो! देखो! मेरे पंखों (पूँछ) की अनोखी सुन्दरता (पंखों को खोलकर नाच/नृत्य की मुद्रा स्थिति में खड़ा होता हुआ) कोई भी तीनों लोकों में मेरी तरह सुन्दर नहीं है। जंगल के जीवों पर आक्रमण करने वाले को मैं अपनी सुन्दरता और नृत्य से आकर्षित करके जंगल से बाहर कर दूंगा। इसलिए मैं ही वन के राजा के पद के लिए योग्य हूँ।

(इसी समय बाघ और चीता भी नदी के जल को पीने के लिए आ गए, इस विवाद को सुनते और बोलते हैं)
बाघ और चीता – अरे क्या वन के राजा के पद के लिए अच्छे पात्र (प्रत्याशी) को चुना जा रहा है? इसके लिए तो हम दोनों ही योग्य हैं। जिस किसी का भी सबकी सहमति से कर लें।
सिंह – अरे चुप हो जाओ। तुम दोनों भी मुझ जैसे ही भक्षक हो रक्षक तो नहीं। यहाँ वन के जीव भक्षक को रक्षक के पद के योग्य नहीं मानते हैं इसलिए बात चल रही है।
बगुला – शेर महोदय ने पूरी तरह से ठीक ही कहा है। वास्तव में शेर ने ही बहुत समय तक राज्य किया है परन्तु अब तो कोई पक्षी ही राजा बने ऐसा निश्चय करना चाहिए यहाँ तो संशय (सन्देह) का थोड़ा सा भी स्थान नहीं है।

सभी पक्षी-(जोर से)-हाँ हाँ-कोई पक्षी ही जंगल का राजा होगा।
(परंतु कोई भी पक्षी अपने अलावा दूसरे किसी को भी इस पद के लिए योग्य नहीं सोचता तो कैसे निर्णय हो। तब उन सभी ने गहरी नींद में निश्चिन्त सोते हुए उल्लू को देखकर सोचा कि यह आत्मप्रशंसा से रहित, पद के लालच से मुक्त उल्लू ही हमारा राजा होगा और आपस में आदेश करते हैं तो राजा के अभिषेक के लिए सामान लाए जाएँ।)
सभी पक्षी तैयारी के लिए जाना चाहते हैं तभी अचानक ही
कौआ – (अट्टहास से युक्त स्वर से) यह पूरी तरह से अनुचित है कि मोर-हंस-कोयल-चकवा-तोता -सारस आदि प्रमुख पक्षियों के विद्यमान होने (रहने) पर दिन के अंधे इस भयानक मुख वाले के अभिषेक (राजा बनाने) के लिए सब तैयार हैं। पूरे दिन तक (भर) सोता हुआ यह कैसे हमारी रक्षा करेगा। वास्तव में तो-
भयानक स्वाभाव वाले, बहुत क्रोधी, निर्दयी और अप्रिय बोलने वाले उल्लू को राजा बनाकर निश्चित रूप से क्या सफलता या लाभ होगा?

(उसके बाद प्रकृतिमाता प्रवेश करती है।)
(प्रेम के साथ) अरे-अरे जीवो! तुम सब ही मेरी सन्ताने हो। क्यों आपस में झगड़ते हो। वास्तव में सभी वन्यजीव (जंगली प्राणीगण) एक-दूसरे पर आश्रित हैं। सदैव याद रखो-
जो देता है, लेता है, गुप्त बातें बताता है अर्थात् सावधान करता है, पूछता है, खाता है और (खाने के लिए) जोड़ता है। यह छह प्रकार के प्रेम के लक्षण (मित्र के लक्षण) हैं।
(सभी प्राणी एक स्वर से)
हे माता! आप तो पूरी तरह से ठीक कहती हैं परन्तु हम तो आपको नहीं जानते हैं। आपका क्या परिचय है?
प्रकृतिमाता – मैं प्रकृति तुम सबकी माँ हूँ। तुम सभी मेरे प्रिय हो। सभी का ही उचित समय पर मेरे लिए महत्व है तो लड़ाई से समय को व्यर्थ न बिताओ बल्कि मिलकर ही प्रसन्न होवो और जीवन को रस से युक्त (खुशी से युक्त) करो तो जैसा कहा गया है-
राजा का प्रजा के सुख में ही सुख और प्रजा के हित में (ही) अपना हित होता है। राजा का अपना हित प्रिय नहीं होता है। प्रजाओं का हित ही तो उसे प्रिय होता है। और भी-
अथाह (अनन्त) जल में घूमने वाली रोहू नामक मछली कभी भी अपनी कुशलता पर गर्व/घमंड नहीं करती है। परन्तु अँगूठे मात्र अर्थात् थोड़े से जल में घूमने वाली छोटी सहरी मछली अधिक फुदकती है।
अतः आप सभी छोटी सहरी मछली की तरह एक-एक गुण की चर्चा को छोड़कर प्रकृति की सुन्दरता और वन की रक्षा के लिए मिलकर प्रयत्न करो।
सभी जीव-जन्तु प्रकृति माता को प्रणाम करते हैं और मिलकर मजबूत संकल्प के साथ गाते हैं-
आपस के विवाद (लड़ाई-झगड़े) से सभी जीवों की हानि नुकसान होती है। परन्तु एक-दूसरे (परस्पर) के सहयोग से उनका लाभ होता है।


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