Summary

प्रस्तुत पाठ श्री ओमप्रकाश ठाकुर द्वारा रचित कथा का सम्पादित अंश है। यह कथा प्रसिद्ध साहित्यकार बंकिमचन्द्र चटर्जी द्वारा न्यायाधीश-रूप में दिए गए फैसले पर आधारित है।

‘सत्यमेव जयते’ परंतु सत्य की विजय के लिए भी प्रमाण की आवश्यकता होती है। सत्य की जीत, निष्पक्ष और उचित न्याय प्रमाण के बिना नहीं हो सकता। अतएव ‘विचित्र साक्षी’ नामक प्रस्तुत पाठ में चोरी के अभियोग में साक्ष्य के अभाव में न्यायाधीश निर्णय नहीं कर सकता। परंतु न्यायाधीश बंकिमचंद्र महोदय प्रमाण के अभाव में अपनी बुद्धि की चतुरता से साक्ष्य उपस्थित करने में सफल होते हैं।
विचित्रः साक्षी Summary Notes Class 10 Sanskrit Chapter 8
कोई निर्धन जन बहुत परिश्रम से धन अर्जित कर अपने पुत्र को किसी महाविद्यालय में प्रवेश दिलवाता है। छात्रावास में रहने वाले अपने पुत्र की बीमारी सुनकर पुत्र को देखने के लिए जाता है। रात्रि में किसी गृहस्थ के घर आश्रय लेता है। उसी रात कोई चोर भी उसी घर में प्रवेश कर रखी हुई एक पेटी लेकर भागता है। चोर के पदध्वनि से जागे हुए अतिथि ने ‘चोर चोर’ चिल्लाया। ऊँचे स्वर से जागे हुए ग्रामवासी भी आ गए और उस अतिथि को ही चोर मानकर पीटने लगे। यद्यपि असली चोर सिपाही (चौकीदार) ही था। परंतु उस समय उस सिपाही ने अतिथि को ही जेल में डाल दिया।

न्यायालय में न्यायाधीश बंकिमचंद्र ने पूरा विवरण सुना। सत्य जानते हुए भी साक्ष्य के अभाव में वह निर्णय न ले सके। अतः उन्होंने अपने बुद्धिचातुर्यबल से एक जीवित साक्ष्य उपस्थित किया। शव रूप में छिपे साक्ष्य ने सब कुछ सत्य उद्घाटित कर दिया। दोषी सिपाही को कारावास हुआ और अतिथि ससम्मान मुक्त हुआ। अतः कहा जाता है “बुद्धिबल से असम्भव कार्य भी सम्भव हो जाते हैं।”


Translation

किसी ग़रीब आदमी ने जब खूब परिश्रम (मेहनत) करके कुछ धन कमाया। उस धन से (वह) अपने पुत्र को एक महाविद्यालय (कॉलेज) में प्रवेश दिलाने में सफल हो गया। उसका पुत्र वहीं छात्रावास में निवास करते हुए पढ़ाई में जुट गया। एक बार वह पिता बेटे की बीमारी को सुनकर व्याकुल हो गया और पुत्र को देखने के लिए चल पड़ा। परन्तु धन की कमी से दुःखी वह बस को छोड़कर पैदल ही चला।

पैदल चलते हुए शाम के समय में भी वह अपने गन्तव्य (जाने के स्थान) से दूर ही था। ‘रात के अंधेरे में फैले हुए (विस्तृत) निर्जन स्थान पर पदयात्रा उत्तम नहीं होती है।’ ऐसा सोचकर वह पास में स्थित गाँव में रात में रहने के लिए किसी गृहस्थी (गृहस्वामी) के घर पर आया। दयालु गृहस्वामी ने उसे आश्रय (सहारा) दे दिया।\

भाग्य की गति बड़ी अनोखी होती है। उसी रात में उस घर में कोई चोर घर के अन्दर घुस गया। वहाँ रखी एक संदूक को लेकर भागा। चोर के पैरों की आवाज़ से जगा अतिथि चोर के शक से उसके पीछे भागा और पकड़ लिया, परन्तु अनोखी घटना घटी। चोर ने ही जोर से चिल्लाना शुरू कर दिया-“यह चोर है यह चोर है”। उसकी चिल्लाहट से जागे गाँव के निवासी अपने घर से निकलकर वहाँ आ गए और बेचारे अतिथि को ही चोर मानकर निन्दा करने लगे। जबकि गाँव का सिपाही ही चोर था। उसी क्षण ही रक्षक (सिपाही) ने उस अतिथि को यह चोर है ऐसा मानकर (निश्चित करके) जेल में डाल दिया।

अगले दिन वह सिपाही चोरी के अभियोग में उसको न्यायालय ले गया। न्यायाधीश (जज़) बंकिमचन्द्र ने दोनों से अलग-अलग विवरण सुना। सारा विवरण जानकर उन्होंने उसे निर्दोष (दोष रहित) माना और सिपाही को दोषी। परन्तु प्रमाण के अभाव से वे निर्णय नहीं कर सके। उसके बाद उन दोनों को उन्होंने अगले दिन हाज़िर होने का आदेश दिया। अन्य दिन उन दोनों ने न्यायालय में अपने-अपने पक्ष को पुनः (फिर) रखा। तभी वहाँ किसी कर्मचारी ने आकर निवेदन किया कि यहाँ से दो कोस की दूरी पर कोई व्यक्ति किसी के द्वारा मार डाला गया है। उसकी लाश राजमार्ग (मुख्य सड़क) के पास पड़ी है। आदेश दें कि क्या करना चाहिए। न्यायाधीश ने सिपाही और कैदी को उस लाश को न्यायालय में लाने का आदेश दिया।

आज्ञा को पाकर दोनों चल पड़े। वहाँ पहुँचकर के लकड़ी के तख्ते पर रखे कपड़े से ढके शरीर को कंधे पर उठाए हुए न्यायालय की ओर चल पड़े। सिपाही मोटे और शक्तिशाली शरीर वाला था और कैदी बहुत पतले शरीर वाला। भारी शव को कंधे से उठाना उसके लिए बहुत कठिन था। वह बोझ उठाने के कष्ट से रो रहा था। उसका रोना सुनकर प्रसन्न सिपाही उससे बोला-“अरे दुष्ट! उस दिन तूने मुझे चोरी की सन्दूक (पेटी) को लेने से रोका था। अब अपने किए का फल भोग। इस चोरी के इलज़ाम (अभियोग) में तू तीन वर्ष की जेल (का दण्ड) पाएगा।” ऐसा कहकर जोर से हँसने लगा। जैसे-तैसे दोनों ने लाश को लाकर एक चौराहे पर रख दिया।

न्यायाधीश ने फिर उन दोनों की घटना के विषय में बोलने के लिए आदेश दिया। सिपाही द्वारा अपने पक्ष को रखने पर आश्चर्यजनक घटना घटी। वह शव (मुर्दा शरीर) कंबल ओढ़े गए कपड़े को हटाकर न्यायाधीश को प्रणाम करके बोला-माननीय (महोदय)। इस सिपाही ने रास्ते में जो कहा था उसको कह रहा हूँ ‘तुम्हारे द्वारा मुझे चोरी की गई मंजूषा (बक्से) को लेने से रोका गया था, इसलिए अपने किए हुए कर्म का फल भोगो। इस चोरी के अभियोग (जुर्म) में तुम तीन वर्ष की जेल का दंड पाओगे।’

न्यायाधीश ने सिपाही को जेल के दंड का आदेश देकर उस व्यक्ति को सम्मान के साथ छोड़ दिया। इसलिए कहा जाता हैबुद्धि की संपत्ति से युक्त लोग नीति और युक्ति का सहारा लेकर कठिन कामों को भी खेल-खेल में ही (आसानी से) करते हैं। कर लेते हैं।


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